अपने भाइयों को समझा दो, वे हमारे घर के मामलों में दखल न दें। बेटी की शादी की तो वे यह बहाना करके नहीं आए कि शादी उनकी पसंद की नहीं हो रही है।’ सुहेल चिल्ला कर बोला।
‘चिल्ला क्यों रहे हो?उन्होंने कौन-सा गलत कहा था। हमारी बेटी ने अपनी पसंद से वह भी दूसरी जाति के लड़के से शादी की… समाज में हमारी कितनी थू-थू हुई। वे उसके मामा हैं। उनकी अपनी पोजीशन
है…इमेज है। उन्हें अच्छा नहीं लगा, वे नहीं आए। मन तो मेरा भी उसकी शादी में शामिल होने का नहीं था, लेकिन मां होने के नाते मन नहीं
माना…’ विमला ने भी उफंची आवाज में ही जवाब दिया।
‘लड़का भी तो लव मैरिज ही कर रहा है। अब वे उसकी शादी में रुचि क्यों ले रहे हैं? इंटरपफेयर क्यों कर रहे हैं? वे ऐसा करके यही बताना चाहते हैं न कि लड़के की उन्हें बहुत परवाह है? वे जब हमारी लड़की की शादी में नहीं आए, तो अब लड़के की शादी में भी आने की जरूरत नहीं है, उनसे पफोन पर कह दो।’ सुहेल गुस्से से थर-थर कांपते हुए बोला।
‘मैं मना नहीं करूंगी। वे मेरे सगे भाई हैं और हमारे बेटे के मामा हैं। ऐसा करने का उन्हें हक बनता है।’
‘वे तुम्हारे सगे भाई हैं, तो मैं क्या तुम्हारा सगा नहीं हूं?’ सुहेल के यह कहने पर विमला सहसा ही बोल पड़ी-‘तुम मेरे सगे नहीं, सिपर्फ पति हो…और पति से जो रिश्ता होता है, वह खून का नहीं, बल्कि भावनात्मक होता है। भावनाओं के न होने पर यह रिश्ता ठंडा पड़ जाता है…’ विमला यह कहकर दूसरे कमरे में चली गई।
बहस का कोई अंत नहीं होता है और बहस बेतुकी हो जाती है तब उसका कभी कोई अर्थ नहीं निकलता है। पति-पत्नी दिन-रात लड़ते ही रहते हैं। वजह कोई भी हो बहस होना निश्चित है। अध्किांश पत्नियां अपने भाइयों और माता-पिता को ताउम्र शुभचिंतक मानती हैं और पति, जो दिन-रात उनके साथ होता है, उसे दूर के रिश्ते का ही समझती हैं।
पति-पत्नी का रिश्ता ही ऐसा है, जो भावनाओं से भी अध्कि जरूरतों और स्वार्थ पर टिका हुआ होता है। पत्नी या पति के मन में एक हल्की-सी बारीक रेखा हरदम बनी रहती है कि यह रिश्ता मानने न मानने के उफपर निर्भर है। तभी तो मनमुटाव की हल्की-सी हवा भी इसे उड़ा ले जाती है और पति-पत्नी बरसों एक साथ रहने के बावजूद अपनी-अपनी राह पकड़ लेते हैं जैसे उनके बीच कुछ था ही नहीं। सुहेल और विमला का रिश्ता कितना पुराना है। पचीस सालों से वे पति पत्नी के रूप में एक-दूसरे के साथ हंै। इन पचीस सालों में ऐसे बहुत से क्षण आए हैं, कभी सुहेल के बीमार होने पर विमला ने उसकी सेवा की है तो कभी सुहेल ने विमला को मानसिक और शारीरिक सहयोग दिया है। लेकिन अब बच्चे बड़े हो गए हैं। उनकी अपनी पसंद हो गई है और खुद ही निर्णय लेने लगे हैं तो उनमें अनबन हो गई है। अनबन का कारण बच्चे तो हैं ही, साथ ही बच्चों के मामा भी हैं क्योंकि वे बच्चों के बीच में आ गए हैं। पत्नी भाइयों के साथ हो कर पति को बात-बात पर नीचा दिखाने लगी है। पति अलग-थलग पड़ गया है। सुहेल को इस दखलंदाजी से एतराज है, लेकिन पत्नी को कोई आपत्ति नहीं है। सुहेल के समझाने पर वह यह कहकर पति को चुप कराना चाहती है कि वे उसके खून हैं। उनसे उसका खून का रिश्ता है, जो पति से नहीं है। पति से रिश्ता तो मतलब का है। अब मतलब हल हो गया है-उसकी युवावस्था बीत गई है, बच्चे बड़े हो गए हैं। वह बच्चों के साथ अपना बाकी का जीवन गुजार सकती है। पति को उसके साथ रहना होगा, तो उसे उसके साथ-साथ उसके भाइयों को भी बर्दाश्त करना होगा।
पत्नी सब कुछ भूल सकती है, लेकिन अपने मायके को ताउम्र भूल नहीं सकती है और मायके वालों को पति के लिए कभी नाराज भी नहीं कर सकती है। पति के सामने मायके को महत्व न देने वाली कम पत्नियां ही मिलेंगी। विमला ने कैसे चुटकियों में ही वैवाहिक-रिलेशन को झुठला दिया और भावनाओं का नाम देकर एक तरपफ कर दिया। अब पति का यह देखना काम है कि वह इस रिश्ते को कैसे चलाता है।
आपका यह मानना सरासर गलत है कि पति-पत्नी का रिश्ता
खून का नहीं, भावनाओं का है। रिश्ते खून के हांे चाहे बेखून के हों, उन्हंे बांध्े तो भावनाएं ही रही होती हैं। उनके मर जाने के बाद न तो खून के रिश्ते जिंदा रह पाते हैं और न ही बेखून के ही रिश्ते ज्यादा देर तक टिक पाते हैं। अगर सही मायनों में देखा जाए तो पति-पत्नी के रिश्ते बेखून के होने के बावजूद भी अन्य रिश्तों के मुकाबले अध्कि मजबूत और टिकाउफ होते हैं क्योंकि इस रिश्ते को जिंदा रहने की कई वजहें होती हैं जबकि अन्य रिश्तों के साथ ऐसा नहीं होता है। यह सच है कि पति-पत्नी का रिश्ता प्यार और विश्वास के अलावा स्वार्थ का भी होता है। दोनों एक दूसरे को बिना किसी ठोस वजह के बहुत कम ही बर्दाश्त कर पाते हैं। पत्नी कपड़े नहीं धेएगी, खाना नहीं बनाएगी या पति कमाउफ नहीं होगा, पत्नी की जरूरतें पूरी नहीं करेगा तो ऐसे में वे एक दूसरे को बर्दाश्त नहीं कर सकेंगे।
यही बात अन्य रिश्तों के साथ भी होती है। केवल समझने की बात है। जो पत्नियां इन बातों को समझती हैं, वे पति को भूलकर भी अपने आप से अलग नहीं मानती हंै और किन्हीं भी हालातों में पति का ही साथ देती हैं तथा मायके के नाम पर हर जायज-नाजायज बात पर मोहर नहीं लगाती पिफरती हैं। मायके वालों का स्वागत करना तो वे जानती हैं पर घरेलू मामलों में उनकी दखलंदाजी पसंद नहीं करती हैं। यह हक तो वे सिपर्फ अपने पति को ही देती हैं। लेकिन ऐसी पत्नियों की संख्या बहुत ही कम है। ज्यादातर पत्नियां यह कहती दिख जाती हैं कि तुम मेरे डैड की तरह नहीं हो। मेरे भइया तुमसे कहीं अध्कि समझदार और मिलनसार इंसान हैं। पति ऐसे शब्द पत्नी के मुंह से सुनकर खीझ जाता है और पत्नी के प्रति असहयोगी बन जाता है। पत्नी पिफर पति की शिकायत जिस-तिस से करती पिफरती है, यह सोचे बिना कि इसका वैवाहिक-जीवन पर क्या असर होगा। हमें आज भी याद है। हमारे एक मित्रा की पत्नी ने यह कहकर उन्हें आहत कर दिया कि मेरे भाई और पापा लड़के को पसंद कर लेंगे तब मैं बेटी का रिश्ता पक्का करूंगी। दोस्त पत्नी की इन बातों से पफट पड़ा-‘बेटी को मैंने पढ़ाया-लिखाया, उसके कैरियर निर्माण पर हजारों खर्च किए, शादी में सारा पैसा मेरा खर्च होगा और पसंद चलेगी तुम्हारे भाइयों और पापा की…?’
उम्र की ढलान में पति को नकार देना और उसकी काबलियत, पसंद और कार्य कुशलता पर शक करना तथा अपने मायके की सलाह पर चलना यह एक अच्छी पत्नी की पहचान नहीं है। ऐसी पत्नियों को तो अवसरवादी या बेवपफा ही कहा जा सकता है, क्योंकि हर दुःख-सुख में जो आपके साथ रहा या आप जिसके साथ रहीं, किन्हीं कारणोंवश उसे इतना अपमानित करना आपके पत्नी होने पर शक पैदा कर सकता है और इससे आपकी इमेज पर भी गलत प्रभाव पड़ सकता है।
